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Channel: शिवना प्रकाशन
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‘‘आसान अरूज़’’ बहुत ज़रूरी था इस किताब का आना

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aasan arooz shivna prakashan corel 15

पाँच साल पहले जब इंटरनेट और ब्लाग की दुनिया में क़दम रखा तो वहाँ ग़ज़लों को लेकर बहुत निराशाजनक वातावरण था । जिस ग़ज़ल में बह्र और कहन तो दूर की बात, रदीफ़ और क़ाफ़िया तक नहीं दुरुस्त थे उस पर पचास पचास टिप्पणियाँ आ रही थीं और हर टिप्पणी में एक ही बात लिखी होती थी, ‘‘वाह क्या बात है’’, ‘‘बहुत उम्दा’’, आदि आदि । पढ़ कर, देख कर क्रोध भी आता था और निराशा भी होती थी । मगर फिर ये भी लगता था कि ये जो ग़ज़लें कही, सुनी और सराही जा रही हैं ये हिंदी ग़ज़लें हैं । इन ग़ज़लों को कहने वाले वे लोग हैं जो उर्दू नहीं जानते और ग़ज़ल का छंद शास्त्र या अरूज़ की सारी मुकम्मल पुस्तकें उर्दू लिपि में ही हैं । हाँ इधर कुछ एकाध पुस्तकें देवनागरी में आईं अवश्य, लेकिन उनको मुकम्मल नहीं कहा जा सकता, वे केवल बहुत प्रारंभिक ज्ञान देने वाली पुस्तकें रहीं । ऐसे में क्रोध करने से ज़्यादा बेहतर लगा कि स्थिति को बदलने का प्रयास किया जाये । स्थिति को बदलने का प्रयास करने के लिये ही अपने ब्लाग पर अरूज़ की जानकारी देनी प्रारंभ की । फिर ये लगा कि ये जानकारी भी कितने लोगों तक पहुँच पा रही है, केवल उतने ही लोगों तक जो कि इंटरनेट से जुड़े हैं । जिनको कम्प्यूटर का ज्ञान है । ऐसे लोगों की संख्या बहुत बढ़ी तो है मगर आज भी हर कोई इंटरनेट और कम्प्यूटर से भिज्ञ नहीं है । तो फिर क्या किया जाये । इधर हिंदी में ग़ज़ल की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है । हर कोई ग़ज़ल कहना चाहता है, हिंदी की ग़ज़ल । ज़ाहिर सी बात है ग़ज़ल में जो स्वतंत्रता है वो सभी को आकर्षित करती है । विषय को पूरी कविता तक साधने का कोई बंधन नहीं है, शेर ख़त्म बात ख़त्म, अब अगले शेर में कुछ और कहा जाये । मगर बात तो वही है कि हिंदी में ग़ज़लकार तो बढ़े और अच्छी ख़ासी संख्या में बढ़े, लेकिन इन सबके बाद भी कोई ऐसी प्रमाणिक तथा सम्पूर्ण पुस्तक देवनागरी में नहीं आई जो इन नवग़ज़लकारों को न केवल मार्गदर्शन दे, बल्कि इनका स्थापित शाइर बनने तक का रास्ता भी प्रशस्त करे । इसलिये भी, क्योंकि इन नवग़ज़लकारों में कई अपनी कहन में संभावनाओं की चमक दिखा रहे हैं तथा यदि कहन की इस चमक में इल्मे अरूज़ का स्पर्श और हो जाये तो बात वही सोने पे सुहागा वाली हो जायेगी । हिंदी में उर्दू की तरह कोई समृद्ध तथा सुदृढ़, उस्ताद शागिर्द परंपरा भी नहीं है जिसका लाभ नव ग़ज़लकारों को मिल सके । ऐसे में अब इन नवग़ज़लकारों के पास एक ही रास्ता शेष रहता था कि पहले ये उर्दू लिपि सीखें और उसके बाद उर्दू लिपि में उपलब्ध इल्मे अरूज़ की पुस्तकों का अध्ययन करें । उसमें भी ये दिक़्क़त कि इल्मे अरूज़ पर जो पुस्तकें उर्दू में भी उपलब्ध हैं वो इतनी आसान नहीं हैं कि आपने पढ़ीं और आपको ग़ज़ल कहने का फ़न आ गया । यक़ीनन उर्दू लिपि में जो पुस्तकें हैं वो इल्मे अरूज़ पर ज्ञान का भंडार हैं लेकिन नवग़ज़लकारों को चाहिये वो सब कुछ आसान लहज़े में । और यहीं से विचार जन्म लिया ‘‘आसान अरूज़’’ का । ‘‘आसान अरूज़’’, एक ऐसी पुस्तक जो न केवल देवनागरी लिपि में हो, बल्कि जो बहुत आसान, बहुत सरल तरीके से अरूज़ को सिखाए । ऐसी पुस्तक जो केवल और केवल किसी उर्दू में उपलब्ध पुस्तक का अनुवाद न हो बल्कि कई कई पुस्तकों के ज्ञान का निचोड़ जिसमें हो । कई बार केवल अनुवाद भर कर देने से चीज़ें और भी ज़्यादा क्लिष्ट हो जाती हैं तथा समझने में परेशानी होती है । कुल मिलाकर बात ये कि जो विचार ‘‘आसान अरूज़’’ के नाम से जन्मा था वो अपने नाम के अनुरूप आसान नहीं था ।
इस ‘‘आसान अरूज़’’ को जो लोग आसान बना सकते थे उनमें कुछ ही नाम नज़र आये और सबसे मुफ़ीद नाम उनमें से अपने मित्र तथा बहुत अच्छे शायर डॉ. आज़म का लगा । इसलिये भी कि इल्मे अरूज़ पर उन्हें अच्छी महारत हासिल है तथा उन्होंने सीखते रहने की प्रक्रिया को कभी ठंडा नहीं पड़ने दिया । इल्मे अरूज़ पर अपने अध्ययन के माध्यम से ही उन्होंने ये महारत हासिल की । आज वे एक उस्ताद शायर हैं क्योंकि फेसबुक के माध्यम से कई समूहों से जुड़े हैं तथा देश विदेश के ग़ज़लकार उनसे इस्लाह लेते हैं । डॉ. आज़म का नाम आसान अरूज़ के लिये सबसे बेहतर लगने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण और भी था । वो कारण था हिंदी भाषा पर भी उनकी अद्भुत पकड़ तथा हिंदी शब्दकोष पर उनका अधिकार । वे जितने अच्छे उर्दू के ज्ञाता हैं उतने ही अच्छे हिंदी के विद्वान हैं । उस पर ये कि इल्मे अरूज़ के भी उतने ही माहिर । चूंकि पुस्तक को देवनागरी में आना है और हिंदी भाषियों के लिये आना है सो ऐसे ही किसी विद्वान की आवश्यकता थी जो उन दोनों भाषाओं को ज्ञाता हो जिनके बीच कार्य होना है साथ ही विषय का भी ज्ञाता हो । विषय का ज्ञान इसलिये आवश्यक है कि यहाँ अनुवाद नहीं होना है बल्कि सरलीकरण होना है । सरलीकरण करने के लिये विषय का ज्ञान और हिंदी भाषा का ज्ञान इस पुस्तक की सबसे आवश्यक शर्त थी । जब डॉ. आज़म से बात की तो उन्होंने भी इस विषय में अपनी सहमति देने भी बिल्कुल देर न लगाई । तो दो साल पहले इस ‘‘आसान अरूज़’’ की नींव डल गई । लेकिन जैसा मैंने पहले कहा कि ये काम पुस्तक के नाम की तरह आसान नहीं था । तो पुस्तक को यहाँ तक आने में दो साल लग गये । इस बीच पुस्तक को लेकर डॉ. आज़म ने ख़ूब जम कर काम किया । सारे संदर्भ ग्रंथ खँगाल डाले । जहाँ जो कुछ भी ऐसा मिला जो ‘‘आसान अरूज़’’ के लिये ज़ुरूरी था उसे जोड़ते गये । छोटी-छोटी जानकारियाँ जिनके बारे में कोई नहीं बताता । वो छोटी-छोटी ग़लतियाँ जिनके चलते नवग़ज़लकारों को अक्सर शर्मिंदा होना पड़ता है, उन सब को पुस्तक में समाहित करते चले गये । जुड़ने-जुड़ाने का ये सिलसिला यूँ होता गया कि पुस्तक का आकार भी बढ़ गया । जिस आकार में सोच कर चले थे उससे लगभग दुगने आकार में अब ये पुस्तक पहुँच गई है । मगर इसके फाइनल ड्राफ़्ट को जब पढ़ा तो मेहसूस हुआ कि ये पुस्तक नवग़ज़लकारों के लिये सौ तालों की एक चाबी होने जा रही है । सचमुच इस पुस्तक पर डॉ. आज़म ने बहुत परिश्रम किया है, जो पूरी पुस्तक में दिखाई देता है । ‘‘रावणकृत ताण्डव स्त्रोत’’ तथा ‘‘श्री रामचरित मानस’’ से संदर्भ उठा कर बात कहने के उदाहरण ये बताते हैं कि लेखक पुस्तक को लेकर कितना गंभीर रहा है तथा काव्य को लेकर कहाँ कहाँ पड़ताल की गई है । हिन्दी में लेखक और लेखन को धन्यवाद देने की परम्परा नहीं है, लेखक को ‘‘टेकन फार ग्रांटेड’’ लिया जाता है । लेकिन मुझे लगता है कि इस प्रकार की पुस्तकों के लिये ये परम्परा टूटनी चाहिये और लेखक को ये पता चलना चाहिये कि उसका श्रम आपके काम आ रहा है । शोध एक श्रम साध्य काम है जिसका परिणाम लेखक को नहीं बल्कि पाठक को मिलता है । इस दिशा में पहल करते हुए मैं स्वयं डॉ. आज़म का आभार व्यक्त करता हूँ कि उन्होंने ‘‘आसान अरूज़’’ को आसान बना दिया । मेरी ओर से बहुत बहुत धन्यवाद तथा पुस्तक को लेकर शुभकामनाएँ ।
                                            -पंकज सुबीर


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